शनिवार, 14 फ़रवरी 2015

" वेदुर्य मणि " नामक टापू पर स्थित है . ओम्कारेश्वर ..

 मध्य प्रदेश के खंडवा जिले में सतपुड़ा और विंध्यांचल पर्वत श्रंखलाओं के बीच
" वेदुर्य मणि " नामक टापू पर स्थित है .  ओम्कारेश्वर ... जिसे मान्धाता ओम्कारेश्वर भी कहा जाता है . इस टापू पर दो ऊँची पहाड़ियां है . दोनों पहाड़ियों के बीच,एक घाटी है जो पहाड़ियों को दो हिस्सों में विभाजित करती है . जो उंचाई से  ॐ  आकार प्रस्तुत करती है . ॐ आकार पर्वत की  उत्तर दिशा में कावेरी नदी और दक्षिन दिशा में नर्मदा नदी बहती है . यहीं पर बसा है ओम्कारेश्वर ...

एक किवदन्ती के आधार पर माना जाता है की इक्ष्वाकु वंश के राजा मान्धाता जो की भगवान् राम के पूर्वज थे , ने यहाँ कठोर तपस्या की ,जिसके परिणाम स्वरूप भगवान् शिव ने उन्हें ओमकार स्वरूप के दर्शन दिए . उसी स्थान पर ओम्कारेश्वर मंदिर है .यही वजह है की आज भी राजा मान्धाता का सिंहासन ओम्कारेश्वर मंदिर में रखा है .  
पुण्य सलिला नर्मदा नदी के उत्तर एवं ओमकार पर्वत के दक्षिन तट पर  स्थित है ,प्राण प्रणव ओम्कारेश्वर .यह मंदिर नर्मदा नदी के किनारे है . जिनकी महिमा ही निराली है ,नदी के दक्षिणी तट पर पार्थिव लिंग स्वरूप में ममलेश्वर ज्योर्तिलिंग है , जो देश के ख्यात बारह ज्योर्तिलिंगो में से एक है .

नर्मदा के उत्तरी तट पर ओमकार मंदिर के समीप  आदि शंकराचार्य की गुफा है ,  विकम संवत 745 को इसी स्थान पर आदि शंकराचार्य ने अपने गुरु गोविन्दाचार्य से दीक्षा ली थी . जिसे गोविन्देश्वर मंदिर के नाम से भी जाना जाता है . 
ओम्कारेश्वर ... एक एसा तीर्थ स्थल,  जहाँ पर धर्म , संस्क्रती और इतिहास से रूबरू होने को मिलता है . यहाँ  कल -कल बहती नर्मदा नदी की पावन जलधारा भी है जो तन - मन को पवित्र करती है . जिसे माँ नर्मदा भी कहा गया है .जिसके दर्शन मात्र से मनुष्य पापमुक्त हो जाता है .नर्मदा पुराण में माँ नर्मदा की इसी महिमा का उल्लेख है . दोनों पर्वत शिखरों के मध्य बहने वाली नर्मदा नदी मध्य में गहराई लिए है .  नर्मदा और कावेरी नदी का संगम स्थल ही ओमकार पर्वत को टापू का स्वरूप प्रदान करता है .

इंदौर - खंडवा सडक एवं रेलमार्ग पर बसे मोरटक्का से बारह किलोमीटर सडक मार्ग की दुरी तय करके ओम्कारेश्वर तक पहुंचा जा सकता है . खंडवा जिले की ओम्कारेश्वर नगर पंचायत क्षेत्र में बसा है ओम्कारेश्वर . यहाँ एतिहासिक महत्व के कई मंदिर है .जो केन्द्रीय एवं राज्य पुरातत्व के अधीन है . जिनमे ओम्कारेश्वर ,ममलेश्वर ,गौरी सोमनाथ एवं बारहद्वारी सिद्धनाथ महादेव मंदिर प्रमुख है . नर्मदा घाट से ओम्कारेश्वर के मुख्य मंदिर तक कोटेश्वर ,हाटकेश्वर ,राज राजेश्वर ,त्र्यम्बकेश्वर ,गायत्रेश्वर, गोविन्देश्वर ,सावित्रेश्वर शिव मंदिर है . ओमकार पर्वत की परिक्रमा मार्ग पर एतिहासिक गौरी सोमनाथ मंदिर , बारहद्वारी सिद्धनाथ महादेव मंदिर , पातली हनुमान के अलावा वानर भोजशाला से भी परिचय करने को मिलता है . परिक्रमा मार्ग पर कई एतिहासिक द्वार है , जिनमे  चाँद -सूरज द्वार , हुंडी - कुण्डी द्वार , भीम द्वार एवं पाण्डव द्वार जीर्ण शीर्ण होकर टूटने की कगार पर है .   

तीर्थ स्थली ओम्कारेश्वर में विकसित  भारत के दर्शन भी होते है . नदी पार कर ओम्कारेश्वर तक पहुँचने हेतु बनाया गया " पुल" जिसकी अत्यधिक लंबाई होने के बावजूद उसके मध्य में आधार नही है . कुशल इंजीनियरिंग का नमूना है . इसके अलावा नर्मदा हाइड्रो इलेक्ट्रिक कम्पनी द्वारा  ऋषिकेश के लक्ष्मन झुला की तर्ज पर नया ममलेश्वर सेतु  भी बनाया गया है . जो ओम्कारेश्वर मंदिर का अतिरिक्त पहुँच मार्ग है . विशेष धार्मिक अवसरों पर इसका अत्यधिक उपयोग होता है . इसी सेतु से 520 मेघावाट विद्युत उत्पादन क्षमता का  ओम्कारेश्वर बाँध दिखाई देता है . 

देश - विदेश से प्रतिदिन हजारो श्रद्धालु ओम्कारेश्वर पहुचते है . विशेष अवसरों पर यह संख्या लाखो में होती है . जो यहाँ आकर धार्मिक सांस्क्रतिक और एतिहासिक विरासत से रूबरू होते है .क्योकि यहाँ के प्रत्येक मंदिरों के एतिहासिक महत्व के साथ उसके धार्मिक महत्व की कहानियाँ और मंदिरों में निभाई जा रही परम्परा कुछ अलग ही सन्देश देती है 

. अनंत महेश्वरी खंडवा [मध्य प्रदेश ] 

खण्डवा शहर के मध्य स्थित घण्टाघर में लगी गोलाकार घड़ियों का इतिहास भी घंटाघर जितना पुराना है।

शहर का वास्तुदोष दूर करने के लिए बदली घड़ियाँ
खंडवा शहर के मध्य घण्टाघर में लगी हुई ऐतिहासिक घड़ी के स्थान पर नई घड़ियाँ लगा जा चुकी है। जो मुम्बई के छत्रपति शिवाजी टर्मिनल रेलवे स्टेशन पर लगाई गई घडी से , आकार में बड़ी है , खंडवा नगर निगम का दावा है कि उन्होंने मुम्बई के छत्रपति शिवाजी टर्मिनल रेलवे स्टेशन पर लगाई गई घडी से बड़े आकार कि घडी खंडवा के घंटाघर में में लगाई है ।
कहते है कि बंद घड़ियाँ वास्तुदोष का प्रतीक होती है , खंडवा शहर के घंटाघर में लगी चार घड़ियाँ वर्षो से बंद पड़ी थी , जिसपर निगम का ध्यान आकृष्ट करवाया एक जैन मुनि ने , जिनके कहे अनुसार खंडवा शहर के घंटाघर में लगी प्राचीन घडीयों के स्थान पर नई इलेक्ट्रानिक घड़ियाँ लगाई जा रही है ,यह प्रक्रिया भले ही देखने में भले ही सहज लगती हो , लेकिन यह बमुश्किल सम्भव हो पायी है। क्योंकि पुरानी घडी के ना तो कलपुर्जे नहीं मिल रहे थे और ना ही उसे सुधारने वाला कोई कारीगर , सवा तीन फुट व्यास वाली घड़ियाँ मार्केट में उपलब्ध नहीं है। खंडवा नगर निगम ने घड़ियों कि तलाश में कई घडी निर्माता कम्पनियों से संपर्क किया लेकिन उन्होंने इस आकार कि घडी बनाने में असमर्थता जाहिर कि , बड़े आकार कि घड़ियों कि तलाश में जुटी खंडवा नगर निगम को आखिरकार रतलाम में विराम मिला
मुम्बई के छत्रपति शिवाजी टर्मिनल रेलवे स्टेशन पर लगी हुई गोलाकार घडी का व्यास सवा दो फुट है , खंडवा के घंटाघर में लगाईं जा रही घडी का व्यास सवा तीन फुट है। खंडवा के घंटाघर हेतु सवा तीन फिट व्यास आकार वाली घडी बनाने का काम रतलाम के घड़ीसाज ने हाथ में लिया , रतलाम के फयाज मोहम्मद अंसारी कि पाँच पीढ़ियोँ घड़ीसाज का काम करती रही है . इसके पूर्व इस घड़ीसाज ने रतलाम के महल और सैलाना के घंटाघर में लगी प्राचीन घड़ियों का सुधार कार्य किया है।
खण्डवा शहर के मध्य स्थित घण्टाघर में लगी गोलाकार घड़ियों का इतिहास भी घंटाघर जितना पुराना है। खंडवा शहर का घंटाघर एक प्रमुख भूमि-चिह्न है। इस घंटाघर को मुल्तान का क्लॉक टॉवर भी कहा जाता है। इसका निर्माण 1884 में अग्रेंजों ने भारत में अपने शासनकाल दौरान किया। 1883 के नगरपालिका अधिनियम अनुसार, इस इमारत का मुख्य उद्देश्य एक कार्यालय के रुप में काम करना था।  इस टॉवर का निर्माणकार्य 12 फरवरी 1884 में शुरु किया गया, और इसे पूरा करने में कुल 4 साल लग गए। वास्तव में, इस घंटाघर को मुल्तान की घेराबंदी में नष्ट हुई अहमद खान सदोज़ै की हवेली के अवशेष पर बनाया गया है। इस क्लॉक टॉवर को पहले नार्थब्रूक टॉवर कहते थे जो (1872-1876) उस समय के भारत के वाइसराय का नाम था। घंटाघर के हॉल को रिपन हॉल कहते थे, जो भारत की स्वतंत्रता के बाद जिन्ना हॉल कहा जाने लगा। 
घंटाघर के टावर पर चारो दिशाओं में  सवा तीन फुट व्यास वाली चार गोलाकार घड़ियाँ पायोनियर कम्पनी से बनवाकर लगाई गई थी ,घण्टाघर में लगी प्राचीन घडी को वजन और चाबी से चलाया जाता था। जिसकी देखरेख के लिए इन्स्पेक्टर नियुक्त किया गया था। प्रत्येक दो वर्ष के अंतराल में प्राचीन घड़ी का रखरखाव होता था , जिसके भी सख्त नियम थे , एक नियम पट्टिका आज भी घंटाघर के भीतरी भाग में लगी हुई है जिस पर साफ़ लिखा है कि घडी के इंस्टालेशन कि जाँच प्रत्येक दो वर्ष में कि जावे और इंस्पेकटर साहिब द्वारा मंजूर किये गए फ़ार्म पर इसकी रिपोर्ट कि जावे। खंडवा नगर निगम द्वारा घंटाघर कि ऐतिहासिक घडी के स्थान पर वर्त्तमान में जो घड़ियाँ लगाई जा रही है वह लगभग बीस किलो वजनी और वाटरप्रूफ होते हुए इलेक्ट्रानिक घड़ी है , जिसका रखरखाव भी दो वर्ष पश्चात किया जावेगा।
शहर के अवरुध्द विकास को गति देने के इरादे से घंटाघर में बंद घड़ियाँ के स्थान पर निगम ने नई घड़ियाँ लगाकर शहर का वास्तुदोष तो दूर कर लिया। लेकिन सिर्फ घड़ियाँ बदलने से शहर का विकास नहीं होता , शहर के विकास के लिए निगम को जनहितैशी कार्ययोजना बनाकर उसे मूर्त रूप देने से ही विकास सम्भव होगा। यह बात भी समझनी होगी।
अनंत माहेश्वरी खंडवा

खंडवा में देवी भवानी कि प्रतिमा दिन के तीन अलग -अलग पहर में तीन अलग -अलग रूप में दर्शन देती है।
भगवान श्री राम ने लंका पर चढ़ाई करने से पहले खंडवा कि माता भवानी से अस्त्र-शस्त्र वरदान में प्राप्त किये
खंडवा , वह शहर है जिसका इतिहास में खाण्डवाहो के नाम से जिक्र किया गया है , किवदंती है कि रामायण में वर्णित खाण्डव वन के स्थान पर ही बसा है खंडवा। जहां स्व्यंभू भवानी माता का मंदिर है। इस मंदिर से यह कथा भी जुडी हुई है कि भगवान श्री राम ने खाण्डव वनो में वनवास के दौरान इसी मंदिर में माता भवानी कि आराधना कि और लंका पर चढ़ाई करने से पहले माता भवानी से अस्त्र-शस्त्र वरदान में प्राप्त किये थे , तो कुछ लोगो का मत है कि खांडव वनो में खर-दूषण का आतंक ख़त्म करने के लिए भगवान् राम ने माता भवानी से अस्त्र-शस्त्र वरदान में प्राप्त किये। खंडवा के इस चमत्कारी मंदिर कि विशेषता यह है कि यहाँ देवी कि प्रतिमा दिन के तीन अलग -अलग पहर में तीन अलग -अलग रूप में दर्शन देती है। याने हर तीन घंटे में देवी का स्वरुप बदल जाता है। पहले पहर में दर्शन करने वाले भक्त को माता बाल्य स्वरुप में दिखाई देती है। दूसरे पहर में माता का युवा रूप दर्शित होता है और तीसरे पहर में माता वृद्ध स्वरुप में दिखाई देती है।
भवानी माता मंदिर में प्रवेश करते ही दाहिने ओर गणेश प्रतिमा है , बायीं ओर अन्नपूर्णा देवी के पास ही लक्ष्मी नारायण के दर्शन होते है।तो देवी अन्नपूर्णा के सामने ही शीश कटे भैरव के दर्शन भी हो जाते है। लेकिन इस मंदिर कि सबसे खास बात है कि माता अन्नपूर्णा कि प्रतिमा के ठीक निचे तांत्रिक महत्व वाली चौसठ जोगिनी कि प्रतिमा एक ही शीला पर दिखाई देती है , जो इस मंदिर के शक्तिपीठ होने कि और इशारा करती है , यही नहीं इस मंदिर परिसर में दीप स्तंभ भी है जिस पर विशेष अवसरों पर एक सौ आठ दीप जलाये जाते है। यह दीप स्तम्भ माता प्रतिमा के सम्मुख है जिस पर शंखो कि सजावट कि गई है , दक्षिण भारत के शक्तिपीठ में इसी प्रकार के दीप स्थल मिलते है , यह दीप स्तम्भ भी इस मंदिर के पुरातन और धार्मिक महत्व को दर्शाता है।जीर्णोद्वार के बाद मंदिर को आधुनिक स्वरुप तो प्रदान कर दिया लेकिन मंदिर कि पवित्रता बरकरार रखने के उद्देश्य से इस मंदिर को शंख और कलश कि आकृति नुमा दीवार बनाई गई , यही नहीं पानी कि विशाल शंख स्वरुप में पानी कि टंकी बनाई गई।
कभी सिंधिया स्टेट कि मिल्कियत रहे , खंडवा के भवानी माता मंदिर कि छह पीढ़ियों से देखरेख कर रहे पंडित राजेन्द्र के अनुसार भवानी माता का यह मंदिर महाभारत और रामायण काल का साक्षी रहा है , जिसका जीर्णोद्वार किये जाने के बाद यह वर्मान स्वरुप में है। भवानी माता मंदिर कि नियत दिनचर्या के हिसाब से सेवा -आराधना कि जाती है , मंदिर में देवी कि प्रतिमा का दिन में दो बार श्रंगार किया जाता है।यहाँ वर्ष में दो बार विशेष पूजा कि जाती है जिसमे लाखो कि संख्या में भक्त आते है और अपनी मनचाही मुराद पूरी करते है
मंदिर के बाहर पूजा सामग्री बेचने वाले बताते है कि देवी के श्रंगार कि सामग्री चढ़ाने से भक्तो कि मनोकामना पूरी होती है , कुछ भक्त मनोकामना पूरी होने पर देवी को श्रंगार सामग्री भेंट के रूप में अर्पित करते है ,मंदिर में आने वाले भक्त भी मानते है कि मंदिर चमत्कारी है। भवानी माता अपने भक्तो कि हर मुराद पूरी करती है। कहते है कि माता के दरबार से कोई खाली हाथ नहीं जाता। किसी कि मुराद पूरी होती है तो किसी को मुफ्त में भरपेट भोजन मिलता है पिछले चौबीस वर्षों से भवानी माता मंदिर परिसर में नि:शक्त जनो के लिए राम कृष्ण ट्रस्ट सेवा केंद्र , दानदाताओं के माध्यम से मुफ्त भोजन उपलब्ध करवा रहा है.
अनंत माहेश्वरी खंडवा

"खंडवा" अवधूत संत केशवानन्द की तपोभूमि

मध्यप्रदेश के खंडवा में संत दादाजी धुनि वाले की समाधि है ,खंडवा अवधूत संत केशवानन्द की तपोभूमि कहलाता है । हमेशा अपने सामने “आग” की धुनी रमाये रखने वाले संत की समाधि खंडवा में है । जिन्हें भक्त दादाजी धुनी वाले के नाम से जानते है। हर साल गुरुपूर्णिमा पर देश भर के लाखो भक्त सैकड़ो किलोमीटर की पैदल यात्रा करके इनके दरबार में माथा टेकने आते है । खंडवा में गुरुपूर्णिमा पर्व के दौरान आने वाले भक्तों को चाय ,नाश्ता , विभिन्न प्रकार के पकवान के अलावा आने -जाने के लिए टेक्सी और दवाइयां “मुफ्त” में मिलती है 
पटेल सेवा ट्रस्ट के कोमलभाउ आखरे बताते है की दादा जी के चमत्कारों की अनुभूति आज भी भक्तों को होती रहती है । यही वजह है की भक्तजन नंगे पैर सैकड़ों किलोमीटर की दुरी तय करके खंडवा पहुंचे है , उनकी जुबान पर यही नाम रहता है , भज लो दादाजी का नाम , भज लो हरिहर जी का नाम अवधूत संत केशवानंद की कई लीलाए है , भक्तो को कई भी मत्कार दिखाए ।
गुरु -शिष्य परम्परा की अनोखी मिसाल सिर्फ खंडवा में देखने को मिलती है । खंडवा के दादा दरबार में बड़े दादाजी और छोटे दादाजी की समाधि है । बड़े दादाजी को भक्तजन शिव का अवतार, और छोटे दादाजी को विष्णु का अवतार मानकर पूजा जाता है। सेवा ट्रस्ट के मदन ठाकरे बताते है की ” बड़े दादाजी खंडवा में वर्ष 1930 में खंडवा आये और मात्र तीन दिन रहने के बाद खंडवा में समाधि ले ली। उनके बाद छोटे दादाजी ने बारह वर्षों तक आश्रम का संचालन करने के बाद यही समाधि ले ली। उन्होंने जो चौबिस नियम बनाये उसमे गृहस्थ जीवन का सार समाया हुआ है , उन्होंने गुरु मर्यादा , गुरु भक्ति और गुरु की सेवा कैसे करना यह सिखाया। उन्होंने सुचिता ,पवित्रता और सत्यता की सीख दी । हवन पूजन और भोजन के बारे में भक्तों को नियम सिखाये।
मदन ठाकरे बताते है की अंग्रेज सरकार ने दादाजी को “गॉड” मानते हुए , उन्हें ताम्रपत्र देकर सम्मानित किया , दादाजी के द्वारा किये चमत्कार विज्ञान के लिए चुनौती साबित हुए , गुरुपूर्णिमा पर्व के दौरान नगरवासी , जात -पात और धर्म का भेद मिटाकर, बाहर से आने वाले भक्तों की सेवा करते है ।
गुरु पूर्णिमा पर खंडवा नगर में आने वाले मेहमानों का स्वागत , पूरा शहर मिलकर करता है ,शहर में प्रवेश करते ही श्रधालुओं की आवभगत शुरू हो जाती है, इस पर्व में लोगो का सेवा भाव और हिन्दू -मुस्लिम एकता का अनोखा रूप देखने को मिलता है । गुरुपूर्णिमा के दौरान खंडवा में दो सौ से अधिक भंडारे आयोजित किये जाते है । अगर आप की जेब में फूटी कौड़ी भी ना हो तो चिंता की कोई बात नहीं खंडवा में चल रहे गुरुपूर्णिमा के पर्व पर आप मनपसन्द खाना खा सकते है वह भी मुफ्त । सिर्फ खाना ही नहीं खंडवा में चाय ,नाश्ता , विभिन्न प्रकार के पकवान के साथ आने -जाने के लिए टेक्सी और स्वास्थ्य सेवाएं , दवाइयां भी मुफ्त मिलती है. मुफ्त की यह व्यवस्था सरकार नहीं बल्कि खंडवा के निवासी आपसी सहयोग से करते है , खंडवा के नागरिको के सेवाभाव को देखकर यह कहा जा सकता है की गुरुपूर्णिमा पर्व के दो दिनों तक खंडवा “दादाजी धाम” हो जाता है .
खंडवा के दादाजीधाम पर गुरूपूर्णिमा उत्सव में शामिल होने आ रहे भक्तों की आस्था देखते ही बनती है । जहां भक्तगण नंगे पैर हजारों किलोमीटर की यात्रा कर पहुंच रहे हैं । महाराष्ट्र के जलगांव जिले के भक्तगण पिछले साहठ वर्षों से खंडवा तक कुल 250 किलोमीटर की दुरी नंगे पैर पैदल चलकर तय करते है । भक्तों के कंधों पर होती है धर्म ” ध्वजा ” जिसे निशान के नाम से जाना जाता है । जिसे वे गुरुपूर्णिमा पर दादाजी के मंदिर के शिखर पर चढ़ाते है । कई भक्त अपने साथ रथ खींचकर खंडवा लाते है । जलगांव से अपने सौ साथियों के साथ सात दिनों की पैदल यात्रा करके खंडवा पहुंचे दादाजी भक्त रामकृष्ण पटेल बताते है की रास्ते में उनके पैरों के छाले हो जाते है कई प्रकार की मुसीबत सामने आती है लेकिन वे दादाजी नाम के सहारे आगे बढ़ते जाते है उन्हें इतना पैदल चलने की शक्ति दादाजी ही देते है। खंडवा आकर उन्हें जो ख़ुशी होती है वह बयान नहीं की जा सकती।
खंडवा में गुरुपूर्णिमा पर्व पर दादाजीधाम पहुंचने वाले भक्तों की संख्या , लाखों में होती है। इस महंगाई के जमाने में तीन लाख मेहमानों की मेजबानी करना आसान नहीं है . गुरुपूर्णिमा पर्व पर खंडवा वासियों द्वारा भक्तो की निस्वार्थ सेवा ” अतिथि देवो भव ” मानने वाली भारतीय संस्कृति का जीवंत उदाहरण है ।
अनंत माहेश्वरी 

आगामी सिंहस्थ तक खंडवा-इंदौर बीच बिछी मीटरगेज रेल लाइन का ब्राडगेज में कन्वर्शन हो पायेगा या नहीं ?

इंदौर-खंडवा के बीच छोटी लाइन को बड़ी लाइन में बदलने का काम सिंहस्थ-2016 से पहले पूरा किये जाने के दावे किये जा रहे की , इंदौर-खंडवा के बीच छोटी लाइन को बड़ी लाइन में बदलने का काम सिंहस्थ-2016 से पहले पूरा कर दिया जाएगा। 2014 खत्म होने को है और काम के लिए सिर्फ एक वर्ष ही बचा है। ऐसे में मात्र एक-डेढ़ साल में खंडवा तक बड़ी लाइन बिछाने की बात किसी को गले नहीं उतर रही है । दरअसल, इस प्रोजेक्ट को लेकर पश्चिम रेलवे अभी शुरुआती तैयारियां भी मुकम्मल रूप से नहीं कर पाया है।

आगामी सिंहस्थ तक खंडवा-इंदौर बीच बिछी मीटरगेज रेल लाइन का ब्राडगेज में कन्वर्शन हो पायेगा या नहीं ? इसी सवाल के जवाब खोजती हमारी स्पेशल रिपोर्ट -
खंडवा -इंदौर मीटरगेज रेल लाइन पर विशेष अवसरों पर ओम्कारेश्वर तीर्थ स्थल तक पहुँचने के लिए यात्री अपनी जान जोखिम में डालकर सफर करते है। मीटरगेज से इंदौर-खंडवा के बीच मात्र 130 किलोमीटर की दुरी तय करने में लगभग पांच से छह घंटे का समय लगता है। आगामी सिंहस्थ को देखते हुए यह दावा किया जा रहा है की इंदौर-खंडवा के बीच छोटी लाइन को बड़ी लाइन में बदलने का काम सिंहस्थ-2016 से पहले पूरा कर दिया जाएगा। सिंहस्थ से पहले इंदौर-खंडवा गेज कन्वर्जन की मांग लगातार उठती रही है ,इस मामले में खंडवा जनमंच के मनोज सोनी सहित अन्य कार्यकर्ताओं ने रेल मंत्रालय के सामने इस मांग को अनेको बार रखा। जनमंच को रेल मंत्रालय सुचना के आधार पर मिली जानकारी के अनुसार फैक्ट इस प्रकार है।
फैक्ट -
1 -अजमेर से हैदराबाद को जोड़ने वाली 1470 किलोमीटर लम्बी मीटरगेज रेलवे लाइन का ब्राडगेज कन्वर्शन कार्य वर्ष 1993 में शुरू किया गया .
2 - अजमेर से रतलाम तक मीटरगेजका ब्राडगेज कन्वर्शन कार्य वर्ष 2004 में पूर्ण।
3- रतलाम से फतेहाबाद 80 किलोमीटर . फतेहाबाद से इंदौर 40 किलोमीटर तक मीटरगेज का ब्राडगेज कन्वर्शन भी हाल ही में पूर्ण हो चुका है।
4 - अकोला से हैदराबाद तक गेज कन्वर्शन का कार्य बर्ष 2007 में पूर्ण।
5 -अब सिर्फ इंदौर से खंडवा और खंडवा से अकोला तक कुल ब्राडगेज कन्वर्शन का कार्य 350 किलोमीटर बाकी। जिसमे से इंदौर से महू तक मीटरगेज का ब्राडगेज कन्वर्शन मार्च 2015 तक किया जाना प्रस्तावित।
17 जनवरी 2008 को केंद्रीय आर्थिक मामलो की कमेटी ने निर्णय लिया था की 1421 करोड़ रुपयों की लागत से वर्ष 2013 तक शेष 472 किलोमीटर रतलाम से अकोला तक का गेज कन्वर्शन किया जाएगा , जिसमे से मात्र 120 किलोमीटर रतलाम से इंदौर तक गेज कन्वर्शन कार्य पूर्ण हो सका। गेज कन्वर्शन को लेकर हालत यह है कि महू से खंडवा के बीच प्रोजेक्ट के लिए सबसे जटिल और चुनौतीपूर्ण हिस्से में बिछने वाली बड़ी लाइन का न तो अभी सर्वे पूरा हो पाया है, न लाइन का अलाइनमेंट तय है। सर्वे और अलाइनमेंट तय होने में भी कम से कम दो महीने का समय लगेगा, क्योंकि निर्माण शाखा का पूरा जोर फिलहाल फतेहाबाद-इंदौर बड़ी लाइन का काम पूरा कर इंदौर-महू के बीच बड़ी लाइन बिछाने पर है। इंदौर-महू के बीच 23 किलोमीटर लंबी लाइन बिछाने और महू यार्ड रिमॉडलिंग में ही आठ महीने लगने का अनुमान है। आधिकारिक सूत्र भी 2016 तक इंदौर-खंडवा के बीच बड़ी लाइन बिछाने की बात से इत्तफाक नहीं रखते। चोरल-मुख्तयारा बलवाड़ा के लिए बीच बनने वाली टनल से बचने के लिए भी अफसरों को सबसे मुफीद और फिजिबल रास्ता खोजना होगा , रेल अधिकारी के मुताबिक़ महू से खंडवा के बीच चार टनल है। रेलवे की वर्तमान पॉलिसी अनुसार अब रेल मार्ग के लिए टनल को अवॉइड किया जाता है। टनल से बचने के लिए, रेलवे ने तीन वैकल्पिक मार्ग चुने है , जिनमे से एक ऐसे मार्ग को फाइनल करना है जो मोस्ट टेक्निकल , मोस्ट एकनॉमिकल हो । ।फाइनल लोकेशन के सर्वे पश्चात भूमि अधिग्रहण की समस्या आएगी। रेलवे को प्राइवेट[ जनता ] भूमि , प्रदेश सरकार से भूमि और केंद्र सरकार के वन मंत्रालय से भूमि अधिग्रहित करना होगी। जिसमे समय लग सकता है। उसके बाद चोरल-मुख्तयारा बलवाड़ा के बीच नई लाइन के लिए वन और पर्यावरण मंत्रालय की अनुमति मिलने में समय लग सकता है। यह सब आगामी सिंहस्थ तक संभव नहीं है। रेल सूत्रों के अनुसार वर्ष 2014 समाप्ति की ओर है। 2016 में सिहंस्थ होगा। कार्य के लिए सिर्फ एक वर्ष 2015 मिलेगा , मान लिया जाए , की इस गेज कन्वर्शन ले लिए पर्याप्त बजट मिल जाए , तब भी इस सिमित अवधि के काम नहीं हो सकता , क्योंकि भूमि अधिग्रहण होगी , जंगल कटेगा , इस्टीमेट बनेगे , फिर कांट्रेक्ट के लिए टेंडर निकलेंगे , जिनके फाइनल होने में समय लगेगा , जिससे यह बात तो साफ़ होती है की सिंहस्थ तक गेज कन्वर्शन नहीं हो सकता।
सिंहस्थ से पहले महू से सनावद तक के कठिन गेज कन्वर्शन को बाकी छोड़कर , इंदौर से महू तक कुल 23 किमी और खंडवा से सनावद तक कुल 60 किलोमीटर की छोटी लाइन को बड़ी लाइन में बदला जा सकता है। मगर वह भी तब जब रेल मंत्रालय प्रोजेक्ट के लिए भरपूर राशि दे। 80 किमी लंबे महू-सनावद सेक्शन में तो काम शुरू होने की फिलहाल कोई गुंजाइश ही नहीं है। अभी तो लक्ष्मीबाईनगर-इंदौर-महू के बीच बड़ी लाइन के लिए ही 65 करोड़ रुपए की स्वीकृृति नहीं मिल पा रही है और खंडवा-सनावद बड़ी लाइन का डीटेल इस्टिमेट (करीब 475 करोड़) को ही रेलवे बोर्ड से मंजूरी नहीं मिली है। कब बजट मंजूर होगा, कब काम चालू होकर पूरा होगा, यह खुद अफसरों को भी नहीं पता। सालाना बजट में प्रोजेक्ट के लिए करीब 90 करोड़ रुपए दिए गए थे, जिनमें से अधिकांश राशि खर्च हो चुकी है। पश्चिम रेलवे ने इंदौर-महू के बीच काम करने के लिए बोर्ड से 65 करोड़ रुपए का अतिरिक्त आवंटन मांगा है।
 अनंत माहेश्वरी खंडवा

आजकल पत्रकार को सिर्फ पत्रकार होना जरूरी नही है

आजकल पत्रकार को सिर्फ पत्रकार होना जरूरी नही है . पहली शर्त की वह जुगाडू हो , फुटेज नही मिले तो किसी से जुगाड़ कर उसे अपनी चैनल पर एक्सक्लूसिव बताकर चला सके . दूसरी शर्त की अगर आपको किस्मत से ब्यूरो बनने का मौका मिल जाए तो फिर आपको स्ट्रिंगर की पकी पकाई खिचडी पर अपने नाम की मुहर लगाते आना चाहिए . जमाना विज्ञान का है तो हमारे जुगाडू भाइयो ने कई चेंनल के ऍफ़ टी पी नंबर और पासवर्ड का भी जुगाड़ कर रखा है , करना क्या ? बस इधर का माल उठाया [  कापी किया ] और अपनी चेनल को भेज दिया . लो हो गया ना काम वह भी घर बैठे . अब भाई लोगो को इसमें गलत कुछ नही लगता , उनके पास तर्क भी है , जब एक चेनल दूसरी चेनल पर से खबर उठाकर उसे एक्सक्लूसिव बताकर चला सकती है तो वह एसा क्यों नही कर सकते ? 
       यह तो हुई इलेक्ट्रानिक मीडिया की बात अब हम आपको मिलवाते है ऐसे पत्रकारों से जो प्रिंट मिडिया से है . मेहनतकश पत्रकारों लिखी गई खबर को ज्यों का त्यों अपने समाचार पत्र को भेज देते है, ये परजीवी पत्रकार कहलाते है . कुछ तो निर्जीवी भी है जो करते कुछ नही सिर्फ प्रेस का ठप्पा लगाकर अपनी शान बघारते है  .          
      एक किस्म और है चापलूस पत्रकारों की .. ये कोम तब भी पायी जाती थी जब राजवंश हुआ करते थे .. फर्क सिर्फ इतना है की उस जमाने में इन्हें भांड कहा जाता था . जिनका काम राजघरानों की शान में कसीदे पड़ना होता था . राजे- रजवाडे तो रहे नही ,भांड जरुर रह गये , जो आज भी अपनी खानदानी परम्परा का बखूबी से निर्वाह कर रहे है ..
    अब बारी है मुफ्तखोरों की ..... पत्रकारों की जमात में शामिल ऐसे मुफ्तखोरों के दर्शन आपको इसी पत्रकार वार्ताओं में जरुर मिल जायेंगे जहाँ वार्ता पश्चात भोज हो . ये बिनाबुलाये मेहमान अपने तगडे सूत्रों के बूते ऐसी पत्रकारवार्ताओं में जरुर पहुँच जाते है , वार्ता में अनाप-शनाप सवाल पूछकर अपनी उपस्थिति दर्ज करवाना इनकी आदत होती है . ये आखरी दम तक गिफ्ट मिलने की आस नही छोड़ते .
   सार्वजनिक कार्यक्रमों में कैमरे के दम पर पत्रकारिता का ढोल पीटने वाले पत्रकारों की नई किस्म भी बाजार में आ गई है . जो कार्यक्रम की रिकार्डिंग तो पूरी करते है फिर उसे घर ले जाकर रख देते है .. क्या करे किसे दिखाए ? इनमे फोटो कैमरे लेकर घुमने वालों की संख्या  तो दिन रात बड़ रही है  ..
आप पत्रकारिता के पेशे में है ..तो ऐसी पत्रकारिता करने वालो के बारे में आपकी क्या राय है ? 
अनंत माहेश्वरी खंडवा [ म.प्र.] 09425085998

कभी कर्मवीर, कभी भारतीय आत्मा कहा गया .


कभी कर्मवीर, कभी भारतीय आत्मा कहा गया .
पुष्प की अभिलाषा की लिखने वाले की अभिलाषा को किसी ने नही समझा .
कर्मवीर भवन से प्रकाशित कर्मवीर समाचार पत्र  आजादी के वीरो के लिए प्रेरणा हुआ करता था . मेरे जाने के बाद वह भवन उजाड़ हो गया. गाहे-बगाहे कोई साहित्यकार तो कभी कोई पत्रकार कर्मवीर भवन में बसी भारतीय की आत्मा को खोजते और चले जाते .  कुछ ने मेरी पीडा को समझते हुए सोई हुई सरकार के कान में फूंक भी लगाई . लेकिन वह नही जागी , जागती भी कैसे ? जगाया उसे जाए जो सोया हुआ हो . भला सोने का बहाना करने वाले भी कभी जागते है ?
.......  यह सिलसिला इसी तरह चलता रहा .कर्मवीर की खामोशी और गहराती गई . हर मौसम में मुझे पनाह देने वाले छत के कवेलू भी बिखरने लगे . कमजोर होती दीवारों की ईटे भी खिसकने लगी . .  कर्मवीर में रातो के वीर भी घुसे जो छोटी - मोटी चोरी करके चले गये . इस घटना ने उन्हें जगा दिया जो कर्मवीर को मात्र सम्पत्ति मानते रहे . और उन्होंने कर्मवीर बेच दिया .........
.........उस दिन इस भारतीय की आत्मा मानो शरीर से विदा हो गई . आत्मा के विदा होने के बाद कर्मवीर भी जमींदोज हो गया . अब वहां विशाल भवन है जिसमे प्राइवेट कम्पनियों के दफ्तर का फर्नीचर बन रहा है .
........आत्मा अमर है .कर्मवीर ना रहा तो क्या हुआ दादा की प्रतिमा तो है जो पद्म विभूषण पंडित माखन लाल चतुर्वेदी की याद दिलाती है .
चाह नही .........पंक्तियाँ लिखी ,वो उस वक्त की जरूरत थी ..अब चाह नही के मायने बदल गये . मेरी प्रतिमा मयखाने के करीब लगा दी गई .  मदिरा पीकर मदहोश होने वाले ,मेरी प्रतिमा के आसपास ,होश आने तक पडे रहते है . शायद प्रशासन यही समझता है की मैंने पुष्प की अभिलाषा नही बल्कि मधुशाला लिखी हो ... पुष्प की अभिलाषा की लिखने वाले की अभिलाषा को किसी ने नही समझा .. अनंत माहेश्वरी खंडवा [म.प्र.]

शुक्रवार, 13 फ़रवरी 2015

प्राचीन आदिम जाति का दर्ज़ा देकर , संरक्षित की जा सकती है "कोरकू जनजाति "

प्राचीन आदिम जाति का दर्ज़ा देकर , संरक्षित की जा सकती है "कोरकू जनजाति " 

कोरकू जनजाति मध्य भारत के महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश के सुदूर ग्रामीण अंचलो में निवास करती है .  मध्यप्रदेश के होशंगाबाद ,बैतूल ,छिंदवाडा और खंडवा जिले के वनग्रामो में रहने वाली इस जनजाति के लोग घूम खेती और शिकार करके अपना जीवन यापन करते है .  कोरकू जनजाति मध्य भारत की एक पिछड़ी और पोषण संवेदनशील जनजाति है . सामाजिक और आर्थिक स्तर पर ये अन्य प्राचीन आदिम जनजाति जैसे बैगा और सहरिया के बराबर है . लेकिन आज भी इन्हें प्राचीन आदिम जनजाति का दर्जा नहीं प्राप्त हुआ .
वर्ष 1973 में देश की सात सौ जनजातियों में से 75 जनजतियों को प्राचीन आदिमजाति का दर्जा दिया गया . जिसमे मध्यप्रदेश में निवासरत  46 जनजातियों में से सिर्फ तीन जनजातियां सहारिया,बैगा और भारिया ही यह दर्जा प्राप्त कर सकी ,कोरकू जनजाति इससे वंचित रह गई . जिससे उनका विकास अवरुद्ध हुआ . 

मध्यप्रदेश में मुख्य रूप से भील, गोंड, कोरकू जनजातियाँ निवास करती हैं। इन जनजातियों द्वारा बोली जाने वाली बोलियाँ काफी समृद्ध एवं प्राचीन हैं। आधुनिकता के इस दौर में इन बोलियों पर भी विपरीत प्रभाव पड़ा है। इन बोलियों के अनेकों शब्द धीरे-धीरे इन जनजातियों की बोलचाल से विलुप्त होते जा रहे हैं।विश्व की जानी मानी संस्था यूनेस्को ने कोरकू भाषा पर चिंता जाहिर करते हुए लिखा की , सरक्षण के अभाव  में  कोरकू भाषा अगले दस वर्षो में विलुप्त हो जाएगी .  इस स्थिति में इन बोलियों के संरक्षण की दिशा में मध्यप्रदेश आदिम-जाति अनुसंधान एवं विकास संस्थान (टी.आर.आई) ने पहल करते हुए भीली, गोंडी एवं कोरकू बोलियों के शब्दकोश तैयार किये हैं। इन तीन बोलियों के लगभग 16 हजार शब्दों को संकलित कर पृथक-पृथक शब्दकोश तैयार किया गया है। प्रदेश में भीली और भिलाली बोलियाँ झाबुआ, अलीराजपुर, धार, खरगोन, बड़वानी, रतलाम आदि जिलों में, "गोंडी"  बोली डिण्डौरी, मण्डला, छिन्दवाड़ा, शहडोल, अनूपपुर, बैतूल, सिवनी, होशंगाबाद, सीधी, बालाघाट, रायसेन आदि जिलों में एवं "कोरकू"  बोली खण्डवा, बुरहानपुर, होशंगाबाद, हरदा और बैतूल आदि जिलों में रहने वाली जनजातियों द्वारा बोली जा रही हैं।
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खंडवा जिले के आदिवासी विकास खंड खालवा में एक लाख साहठ हजार आदिवासी रहते है . जिनमे कोरकू , गोंड और बारेला [भील ] शामिल है  . जिनमे  70% कोरकू जनजाति से है . जो मध्यप्रदेश के अलग -अलग हिस्सों में निवास करने वाली कोरकू जनजाति का कुल 31% है . कोरकू सीमांत किसान के रूप में है , जिनमे अधिकतर खेतिहर मजदुर है , अशिक्षा ,कुपोषण और रोजगार इस जनजाति के पिछड़ेपन की मुख्य वजह है  .आदिवासी विकासखण्ड खालवा के ग्रामीण अंचलो में विकास के नाम पर अरबों रूपये खर्च किये जा चुके है , बावजूद इसके यहां कुछ नहीं बदला ।  विकास के नाम पर कुछ ग्रामीण इलाको में पञ्च परमेश्वर योजना के तहत कंक्रीट की सड़के नजर आती है।  बिजली के पोल नजर आते है , जिसमे चार -पांच दिन के अंतराल से कुछ घंटो बिजली मिलती है।  कहने को इन आदिवासी इलाको में सभी तरह की सुविधा उपलब्ध है , सुविधा के नाम पर गाँव में स्कुल है , आंगनवाड़ी है , आशा कार्यकर्ता है , स्वास्थ केन्र्द भी है।  लेकिन सब बदहाल। यही वजह है की यहां रहने वाले  ग्रामीणो का सरकारी तंत्र पर भरोसा नहीं है। 

मध्‍यप्रदेश में निवासरत कोरकू आदिवासी , आज भी  उपचार के लिए पारम्परिक तरीको का सहारा लेते है . किसी भी तरह की बीमारी का उपचार चाचवा के जरिये किया जाता है . कोरकू बहुल आदिवासी विकास खंड खालवा में कुपोषित और बीमार बच्चों का उपचार , आज भी  पारम्परिक तरीके चाचवा से किया जा रहा है  ,चाचुआ यानी सुर्ख लाल, गर्म सलाखों बीमार मासूमों को दागने का प्रचलन बदस्तूर जारी है. सुदूर अंचलों में जहाँ चिकित्सा के साधनों के चलते लोग अपने मासूमों की जान दाव पर लगाकर उन्हें ओझा या बाबा से गर्म सलाखों से शरीर को दागवाते है. ग्रामीणों का ऐसा मानना है ऐसा करने से उनका बच्चा बिमारी से मुक्त हो जाएगा जबकि बच्चे इससे इन्फेक्शन का शिकार हो जाते है और उनकी जान पर बन पड़ती है. चाचवा इलाज पद्धति में गर्म लोहे की सलाखों से मानव अंगो को दागा जाता है . यह उपाय कारगर नहीं होने पर बीमार की मौत भी हो जाती है . 
कोरकू बहुल आदिवासी विकास खंड खालवा में कुपोषण भी गंभीर समस्या  के रूप  है।   पिछले वर्षों में कुपोषण से कई आदिवासी बच्चो की मौत हो चुकी है। महिला और बाल विकास विभाग जिले में कुपोषण के दंश को रोक नहीं पा रहा है। खंडवा जिले में बाल मृत्यु दर  अत्यधिक होने के कारण जिला प्रशाशन ने भी घुटने टेक दिए है। प्रति वर्ष बारिश के मौसम में , जिले के अलग पोषण पुनर्वास केन्द्रों पर भर्ती होने वाले कुपोषित बच्चो का औसत आंकड़ा दस बच्चे प्रतिदिन है . जिसमे दो से तीन अति कुपोषित बच्चे उपचार हेतु खंडवा रेफर किये जाते  है . जिले के खालवा विकासखंड में कुपोषण और मौसमी बीमारियों से हर माह 1 0 से 1 5 बच्चो की मौत हो जाती है। यह हालात मध्य प्रदेश के पूर्व आदिमजाति कल्याण मंत्री विजय शाह के विधानसभा क्षेत्र की है .

खंडवा जिले के खालवा ब्लाक के ग्रामीण अंचलो में 300 से अधिक  आँगनवाडियां चल रही है . जिसमे दर्ज संख्या के अनुपात में मात्र एक या दो प्रतिशत ही उपस्थिति होती है . कुपोषण की मुख्य वजह महिला बाल विकास विभाग की लापरवाही है . जो आँगनवाड़ी में दर्ज बच्चो की उपस्थिति को लेकर गंभीर नहीं है . शासन ने  कुपोषित बच्चो के परिवार वालो को बीपीएल एवं अन्तोदय योजना के तहत  राशनकार्ड बनाकर दिए.. बावजूद इसके कुपोषण थमने का नाम नहीं ले रहा है . जिला महिला और बाल विकास अधिकारी राजेश गुप्ता के मुताबिक जिले के अन्य गांवों में पिछले कुछ वर्षो में लगातार सुधार की स्थिति बन रही है. लेकिन खालवा और पंधाना में अब भी कम वजन और अति कुपोषित बच्चों की संख्या ज्यादा है | कम वजन के बच्चों का आंकड़ा 40 हजार के आसपास था |

एक नजर - खालवा पोषण पुनर्वास केंद्र में उपचार हेतु भर्ती कुपोषित बच्चो के वर्ष वार आंकड़ो पर -
वर्ष  2008-09 - बालक 81    बालिका -34   भर्ती 47     खंडवा रेफर - 06 
वर्ष  2009-10  - बालक 189 बालिका -o7    भर्ती 112   खंडवा रेफर- 08
वर्ष  2010-11   - बालक 289 बालिका -97    भर्ती -139खंडवा रेफर - 11
वर्ष  2011-12   - बालक 443 बालिका -220 भर्ती -217 खंडवा रेफर - 07
वर्ष  2012-13   - बालक 800 बालिका -346 भर्ती -454खंडवा रेफर- 94 

इन आंकड़ो से साफ़ होता  है की कुपोषण के प्रति अधिकारी और शासन गंभीर नहीं है . जो कोरकू जनजाति के लिए घातक है . आसान नहीं है जब तक इस समस्या को गंभीरता से नहीं लिया जावेगा  तब तक यह दिक्कते आती रहेंगी . कोरकू आदिवासी के एक हालिया सर्वेक्षण से पात कहलता है की इनके बच्चों के बीच उम्र के अनुसार ऊंचाई जिसे तकनिकी भाषा में स्टनटिंग कहते हैं बढ़ रही है. यह सतत भूख और पोषण की कमी का परिणाम है. ... इनकी बढ़ने और सीखने  की क्षमता तो यहीं लगभग कम हो गयी. अपने शिकार संग्राहक अवस्था में कोरकू समाज जंगल से मिलने वाले कांड मूल खाते थे जो उनके पोषण का एक महत्वपूर्ण श्रोत था... धीरे धीरे दुसरे की देखा देखी खान पान बदला तो परम्परागत चीजें भी खानी बंद हो गयी पर पूरी तरह नहीं..  कोरकू बच्चे आज भी दूर दराज़ जंगल से कांड मूल खोद लाते हैं... परंपरागत पोषक अनाज जैसे कोड -कुटकी को वापस लेने का प्रयास किया जाए तो कुपोषण में कमी आएगी।  

भारत की जनगणना 1931 में लिखा है - कोरकू सबसे पिछड़ी जनजाति है .इसमें मात्र 3 साक्षर पुरुष है .और कोई भी साक्षर महिला नहीं है ,1961की जनगणना में भी समूचे कोरकू समाज [ महाराष्ट्र और निमाड़ सम्मिलित ] में मात्र 61 साक्षर पुरुष और 5 साक्षर महिलाये थी . 11 कोरकुओं ने मेट्रिक तक की पढ़ाई की थी . जिसमे 2 कोरकू मध्यप्रदेश के थे . ये सारे साक्षर पुरुष ही थे . 2001 की जनगणना के अनुसार कोरकू की साक्षरता की दर पुरुष 38.8 प्रतिशत है और महिला साक्षरता की दर 24.5 है .जो राज्य की ओसत जनजाति साक्षरता दर पुरुष 41.2 प्रतिशत और महिला साक्षरता दर 28.4 से भी कम है . 
आज भी कोरकू जनजाति के बच्चो की साक्षरता दर दुसरे ग्रामीण बच्चो की तुलनात्मक कम है .  कोरकू परिवार में रहने वाले छह या आठ बच्चो में से एक या दो बच्चे ही स्कुल जाते है . घर पर रहने वाले बच्चे अपने छोटे भाई -बहनों की देखरेख के लिए घर में रहते है . 

ग्राम लंगोटी में कोरकू परिवार के कुल दो सौ बच्चे स्कुल जाने लायक है ,लेकिन सिर्फ  बीस बच्चे ही स्कुल जाते है . यहां रहने वाले  शिवलाल भाऊ की बेटी साजन कोरकू समाज की एक मात्र ऐसी लडकी है जो नवमी कक्षा की पढ़ाई कर  रही है .ग्राम लंगोटी के शिवलाल भाऊ के परिवार में  कुल आठ थे . जिसमे दो बच्चो की मौत मौसमी बिमारी के चलते हो गई . बाकि बचे छ बच्चो में से सिर्फ दो बच्चे ही स्कुल जाते है . शिवलाल भाऊ ने गरीबी के चलते बाकी बच्चों को स्कुल में दाखिला नहीं दिलाया .खंडवा जिले के आदिवासी विकास खंड खालवा में काम करने वाले गैर सरकारी संगठन स्पन्दन के कार्यकर्ता अनंत सोलंकी बताते है की कोरकू बहुल ग्रामो में सिर्फ पाचवी कक्षा तक की ही स्कूले है .आगे की पढाई करने के लिए कई किलोमीटर दूर की स्कुलो में जाना पड़ता है .  दूसरा प्रमुख कारण मजदूरी की तलाश में कोरकूओ का पलायन है . जो अपने परिवार के बड़े बच्चो को छोटे बच्चो की देखरेख में लगा देते है . ऐसे हालातो में इन्हें शिक्षा देने के सरकारी प्रयास भी नाकाम साबित हो रहे  है . कोरकू बहुल दूरस्थ गाँवो की सरकारी स्कुलो में पदस्थ शिक्षको की अपने कार्य के प्रति अरुचि भी कोरकू जनजाति के  पिछड़ने की एक वजह है। 

आदिवासी बहुल खालवा विकासखण्ड में रहने वाले  कोरकू परिवारों के लिए रोजगार पाना , किसी समस्या की तरह है ।  रोजगार  की तलाश में गाँव से पलायन करना पड़ता है . यह सिलसिला पिछले कई वर्षों से जारी है।  आदिवासियों के पास जाब कार्ड है , पर रोजगार नहीं . गाँव में मनरेगा के तहत काम तो खुलते है , किन्तु सिर्फ कुछ लोगो को रोजगार मिलता है . वह भी एक वर्ष  में दस से पन्द्रह दिन . एसे में परिवार का पालन - पोषण कैसे करे ? यह समस्या है कोरकू बहुल आदिवासी विकास खंड खालवा में रहने वाले कोरकू परिवारों की . जिन्हें मज़बूरी में रोजगार  की तलाश में पलायन करना पड़ता है .  खालवा ब्लाक के गारबेड़ी , मौजवाडी ,ढ्कोची , पटाल्दा , उदियापुर माल और लंगोटी जैसे कई गाँवो की यही कहानी है।  यहाँ गाँव के  मजदूर परिवारों के मकानो में लगे ताले अपनी कहानी खुद बयान कर रहे है।  गाँव में रह रहे बूढ़े , बच्चे और महिलाओं ने बताया की   गाँव में मनरेगा के तहत वर्ष में सिर्फ दस से पन्द्रह दिन का रोजगार मिलता है  . बाकी दिनों में मजदूरी की तलाश में उन्हें  दुसरे राज्य में जाना पड़ता है .इसके अलावा कई ग्रामीणो की यह भी शिकायत है की  उन्हें  -आज -तक किसी भी सरकारी योजना का लाभ  नहीं मिला , ग्रामीणो का आरोप है की और  ग्राम पंचायत के सरपंच सचिव अपने ख़ास लोगो को ही काम देते है . 
गाँव जमनापुर के बुजुर्ग बताते है की वे पिछले दस वर्षों से देखते चले आ रहे है की गाँव के युवा किराया लगा -लगाकर गाँव के बाहर काम की तलाश में चले जाते है।  गाँव का गाँव खाली पड़ा है , गाँव में सिर्फ बूढ़े और बच्चे ही बचे है। पलायन की मुख्य वजह रोजगार की तलाश है . गाँव में मनरेगा के तहत काम सीमेंट रोड निर्माण या कपिलधारा योजना के तहत कूप निर्माण के काम में गाँव के सिमित मजदूरों को काम मिलता है . वह भी सिमित दिनों के लिए . अगर माइक्रो प्लान अपनाया जाकर ग्रामीणों की जरूरतों के हिसाब से गाँव में सरकारी योजनाओं के कार्य खोले जाए , तो पलायन रोका जा सकता है . 

 ज्यादातर यह माना जाता रहा है कि कोकरू जनजाति का स्वाधीनता संग्राम में कोई अहम् योगदान नहीं रहा. जब भी स्वाधीनता संग्राम में जनजाति के योगदान का विवरण आता है तो स्वत टांटिया मामा या बिरसा मुंडा जैसे नाम सामने आते हैं.
निमाड की धरती में आज जहाँ कोरकू समुदाय कुपोषण, भूख और उपेक्षा की मार झेल रहा है वहीँ उनका भी एक वीर था जिसने अंग्रेजों और शोषकों के विरुद्ध असाधारण लड़ाई लड़ी थी.
रंगु कोरकू जो सोन खेडी गावं का निवासी था अधिकतर समय टांटिया भील के दल में एक प्रमुख सदस्य के रूप में ( १८७८ से १८८९) तक शामिल रहा. १८८० में टांटिया के २०० साथी गिरफ्तार हुए और उनमें से कुछ जबलपुर जेल से भाग कर निमाड में अपने संघर्ष को संबल प्रदान करते रहे. रंगु कोरकू भी शायद इसमें एक था. टांटिया का क्षेत्र इंदौर राज्य से एल्लिच्पुर और होशंगाबाद जिलों तक विस्तृत हो गया था. सेंट्रल इंडिया के ब्रिटिश एजेंट सर लेपल ग्रिफ्फिन को भी सफलता हासिल नहीं हुई. टांटिया के सर पर ५००० रुपयों का इनाम था.
इस दौरान होलकर शासन और ब्रिटिश सर्कार द्वारा जारी इश्तेहारों , इनाम की नोटिसों और राजपत्रों में टांटिया और उनके साथी की सूचि में रंगु कोरकू का नाम शामिल रहा.
८ मार्च १८८८ को अंग्रेजों द्वारा जारी फरमान जिसमे इंदौर दरबार ने भी २००० रूपये के इनाम की घोषणा की थी उसमे टांटिया के कुछ साथियों के साथ रंगु कोरकू के समक्ष भी टांटिया भील को पकडवाने की शर्त पर माफ़ी की पेशकश की गयी थी. पर ऐसा नहीं हुआ..
टांटिया मामा को तो सम्मान मिला पर निमाड का यह कोरकू वीर इतिहास के पन्नों पर भी खो गया.
कोरकू के जनप्रतिनिधियों या खुद उसके कोरकू समाज ने भी उसकी सुध नहीं ली.
यदि रंगु कोरकू की यादों को ताज़ा किया जाए तो गरीबी और भूख से जूझते कोरकू समाज का मनोबल बढेगा जो खुद यह मांग कर रहा है कि उसे प्राचीन आदिम जाती का दर्ज़ा मिले.  प्राचीन आदिम जाति का दर्ज़ा देकर , ही संरक्षित की जा सकती है "कोरकू जनजाति " 

अनंत माहेश्वरी 

कविता -पत्रकार है कहलाता

सिस्टम सुधारने की बात करता
दीवानगी की हदों को पार करता 
कलम से प्रहार करता 
पत्रकार है कहलाता 

असुरक्षित माहौल में  
खबर पाने की फ़िक्र में  
अपनी फ़िक्र  जो नहीं करता 
पत्रकार है कहलाता 

लक्ष्मी से वंचित वह रहता   
सरस्वती की पूजा करता 
बुद्धिजीवी वह कहलाता 
 
अभावग्रस्त जीवन वह जीता 
पत्रकार है कहलाता 

चौथा स्तम्भ की संज्ञा वह पाता 
सर्वनाम होकर रहजाता 
पत्रकार वह कहलाता 

अनंत माहेश्वरी खंडवा  
 

कविता- घनघोर घटाएं

घनघोर घटाएं 
जमकर बरसो 
बरस -बरस के इतना बरसो 
की फिर ना बरसों बरसो।  

अनंत माहेश्वरी 

कविता - बदरा इतना क्यों तरसाते हो

बदरा इतना क्यों तरसाते हो 
प्रेमिका की तरह आते हो 
और एक झलक दिखा कर चले जाते हो 

 तुम्हारे इन्तजार में आँखे तरसे
की बदरा अब बरसे की कब बरसे 

बदरा  इतना भी ना तरसाओ 
अब तो आँशु भी सूखने लगे है 
अमृत बून्द बनकर , बरस जाओ , बरस जाओ 
अनंत माहेश्वरी 

गुरुवार, 12 फ़रवरी 2015

मै खंडवा हूँ .....

मै खंडवा हूँ 


लोग मुझे खंडवा के नाम से जानते है , लेकिन मेरे अत्तीत को नहीं ,
मै खंडवा हूँ  , जो द्वापर युग  की महाभारत , त्रेतायुग की रामायण और जैन धर्मो की कथाओं में किसी ना किसी नाम से जाना -जाता रहा हूँ।    
सिर्फ कुछ लोग ही यह जानते है की रामायण में वर्णित खांडव वन के स्थान पर बसा हुआ है "खंडवा"    जहां वनवास के दौरान भगवान राम ने चौदह वर्ष बिताये ,
खंडवा ,  जहां स्व्यंभू भवानी माता का मंदिर है। इस मंदिर से यह कथा भी जुडी हुई है कि खाण्डव वनो में वनवास के दौरान  भगवान श्री राम ने  इसी मंदिर में माता भवानी कि आराधना कि 
और लंका पर चढ़ाई करने से पहले माता भवानी से अस्त्र-शस्त्र वरदान में प्राप्त किये।
       
ग्याहरवीं सदी के इतिहास में , अरबी भूगोलशास्त्री ने खांडवाहो के नाम से मेरा जिक्र किया। तब यह वनक्षेत्र गौंड राजाओं के आधिपत्य में था। इतिहासकार अबुल फजल ने लिखा की यहां के गौंड  
शेरो को पालतू पशु की तरह  रखते हुए उनसे मनचाहा काम लेते थे।  
बाहरवी सदी में मेरा विकास तब आरम्भ हुआ , जब राजस्थान से ,तीन सौ हूमड़ मेरे अंचल में आकर बस  गए।
जैन धर्मावलम्बी हूमड़ ने खंडवा शहर के विकास की नींव रखी।  जिहोने चौर्यासी मंदिर और चौर्यासी बावड़ियों का निर्माण करवाया।  नगर की चार दिशाओं में निर्मित चारो कुण्ड उसी काल की जीवंत निशानी बतौर आज भी मौजूद है।
तब जैन धर्म ग्रंथों में मुझे "खेड़वा" के नाम से जाना जाता था।  
बाहरवी सदी से पंद्रहवी सदी तक जैन ग्रंथों में रहे खेड़वा यानी खंडवा का जिक्र पंद्रहवी सदी के इतिहास में फिर हुआ।  फरिश्ता नामक इतिहासकार ने लिखा की  1516 ईश्वी में खंडवा मालवा के राजवंश के अधीन था।  1802 ईश्वी में  जसवंतराव होल्कर  खंडवा को जलाकर नष्ट करना चाहा।  1858 के दौरान  टांटिया टोपे ने  खंडवा को पुनः नष्ट कर दिया  ,  लेकिन मेरा विकास रुका नहीं ,  वर्ष 1872 में मेरे अंचल में रहने वालो की संख्या सिर्फ पंद्रह हजार थी।  जो बर्ष 1901 में बढ़कर बीस हजार के लगभग हो गई।  तब से जनसंख्या के विकास का दौर आज भी चला आ रहा है , 
आध्यात्मिक लोग मुझे याने खंडवा को  दादाजी धूनीवाले की पवित्र नगरी बतौर पहचानते है , तो साहित्यकार मुझे  पद्मश्री पंडित माखनलाल चतुर्वेदी की कर्मभूमि के नाम से भी जानते है , फ़िल्मी दुनिया से ताल्लुक रखने वालो के लिए खंडवा एक ऐसा नाम है , जिसे कला प्रेमी बढे ही आदर के साथ किशोर कुमार की नगरी के नाम से जानते है।
यही है मेरी पहचान - कला संस्कृति साहित्य और आध्यात्म की मगरी खंडवा।  
खंडवा जो विकास के क्रम में कभी नहीं थमा , भागती दौड़ती जिंदगी हो या रफ़्तार का युग ,  समय के साथ मेरी आंतरिक बनावट में कई बदलाव आये।  खंडवा की सड़को पर दौड़ने वाली बैलगाड़ियों की जगह अब तेज रफ़्तार से चलने वाली चमचमाती  कारों ने ले ली है।  सब कुछ बदला - बदला सा नजर आने लगा है ,
 जो नहीं बदला …  तो वह है शहर की आंतरिक बनावट।
संकरी सड़के , पतली गलियां , तंग रास्ते .  जो  कभी बैल गाड़ियों के लिए उपयोग में लाये जाते थे , वहां से  दो पहियाँ और चार पहियां वाहन गुजरने लगे है।   बढ़ती आबादी के साथ , वाहनो की संख्या भी बढ़ गई।
सड़के  खेल मैदान में तो कही पार्किंग स्थल में तब्दील हो गई , इन्ही  सड़को पर पसरता अतिक्रमण , सड़को को और भी तंग बना देता है , यह सब देखकर मै बहुत  दुखी होता हूँ , क्योंकि मै वही  खंडवा हूँ  , जो कभी खांडव वन के नाम से जाना जाता था , जिसकी शुद्ध हवा , मन को शान्ति प्रदान करती थी । लेकिन आज मेरे ह्रदय स्थल में बनी  सड़को पर आये दिन लगते वाहनो के जाम और उनसे निकलते धुंएँ से मेरा दम घुटने लगा है। 
मै भी विकास चाहता हु , लेकिन अपनों को खोकर नहीं।   विकास के दौर में जिन्हे मेरे साथ कदमो से कदम मिलाकर चलना था , वह तेज रफ़्तार का शिकार हो गए ,अपनों को खोने का गम मुझे भी है। मै नहीं चाहता की  मेरा अपना कोई तेज रफ़्तार का शिकार बने, और किसी के घर का रोशन चिराग हमेशा के लिए  बुझ जाए।   
सड़कों पर आये दिन होने वाले हादसों को देखकर मेरी रूह काँप उठती है।
वर्ष 2005  से , वर्ष दो हजार चौदह तक के आकड़ों पर  नजर डाले , तो इन वर्षों में कुल छह हजार नौ सौ सात दुर्घटनाऍ घटित हुई , जिनमे नौ हजार एक सौ इक्यासी गंभीर रूप से घायल हुए , जिनका दर्द मुझे आज भी सताता है।  
इन्ही वर्षों के दौरान घटी  दुर्घटना में  एक हजार चार सौ तीस लोग , अकारण ही काल के गाल में समा गए। किसी के घर का चिराग बुझ गया , तो किसी के परिवार का मुखिया ही नहीं रहा।  कई परिवारों के सपने समय से पहले ही  बिखर गए।  
वर्ष 2013 से सड़क दुर्घटनाओं में अचानक वृद्धि हुई।  इस वर्ष  कुल एक सौ छियालीस नागरिक सड़क दुर्घटना के कारण मौत के मुंह में समा गए  । 
वर्ष 2013 की तुलना में वर्ष 2014 में यह संख्या बढ़कर दोगुनी हो गई। इस वर्ष सड़क दुर्घटना में मरने वालो की संख्या तीन सौ तेरह थी । जो सर्वाधिक थी।  जिनके परिवार के  सदस्य इस सड़क दुर्घटना के शिकार हुए , उनका दर्द  उनके परिजनों के अलावा मुझे भी सताता  है , क्योंकि मै खंडवा हूँ . मेरे अपने अंचल में रहने वाले कई लोग सड़क दुर्घटना के शिकार होकर , इस दुनिया से असमय ही विदा हो गए। कुछ भाग्यशाली ही थे जो इस दुर्घटना में घायल होने के बाद स्वस्थ हो गए । लेकिन कुछ ऐसे भी है , जो अब -तक स्वस्थ नहीं हो सके।   
एस एन  कालेज के व्याख्याता पी सेल्वराज उनमे से एक है , जिनके स्वस्थ होने की  प्रार्थना उनके परिजन रोज करते  है।  
कभी खुशहाल जिंदगी बिताने वाले ,  तीन सदस्यों के इस परिवार को ना जाने किसकी नजर लग गई।  वर्ष 2013 का दिसम्बर माह , इस परिवार की खुशियों पर ग्रहण लेकर आया।  जब  व्याख्याता पी सेल्वराज अपने घर जाने के लिए कालेज परिसर से बाहर निकले और सड़क दुर्घटना के  शिकार हो गए।  इस दुर्घटना के कारण वे  छह  माह के लिए कोमा में चले गए।  छह माह कोमा में रहने के बाद , जब उन्हें होश आया , तब-तक वे अपनी सुध-बुध खो चुके थे। अब इनके परिजन , इन्हे घर से  बाहर नहीं जाने देते , उन्हें डर  है की कही ये पुनः  किसी दुर्घटना के शिकार ना हो जाए।        

व्याख्याता पी  सेल्वराज की के साथ घटित हुई दुर्घटना बताने के पीछे मेरा मकसद सिर्फ इतना है की , मेरे अपने शहर का कोई बाशिंदा फिर इसी तरह किसी दुर्घटना का शिकार ना हो।  
क्योंकि मै खंडवा हूँ , मेरे अंचल में रहने वाला कोई भी बाशिंदा किसी दुर्घटना का शिकार होता है , तो मै भी उनके परिजनों जितना ही दुखी होता हूँ । 
मेरे अपने अंचल में रहने वाले  डाक्टर बीपी मिश्रा के  एकलौते  होनहार  पुत्र ,  आनंद मिश्रा  ने तेईस वर्ष की आयु में ही एमबीबीएस किया ।  आनंद मिश्रा का सपना था की वे भी अपने माता - पिता की तरह अपने शहरवासियों को चिकित्सा सेवा  दे सके । लेकिन ऐसा हो ना सका।  सात नवम्बर वर्ष दो हजार को हुई बाईक चलाते हुए सड़क दुर्घटना के शिकार हो गए। काश  वे हेलमेट पहने होते ,  तो आज हमारे बीच होते।  
दुर्घटना में अपनी जान गंवा देने वालो की फेहरिस्त बहुत लम्बी है। अभिषेक मसीह उम्र 32 वर्ष  , अपने माता -पिता का इकलौता पुत्र ,     सरकारी नौकरी पाने की लालसा लिए , समय से पहले ही इस दुनिया से विदा हो गया। 19 -10 -2013 की तारीख इस युवक के लिए अंतिम तारीख साबित हुई।  जब वह  छेंगांव माखन फाटे पर एक आयशर वाहन को गलत साइड से ओव्हरटेक करने में अपने दो पहिया वाहन का संतुलन खो बैठा ,  और आयशर की चपेट में आ गया ।सरकारी नौकरी पाने की चाह रखने वाले इस युवक के  भाग्य की  विडंबना देखिये की उसकी मौत के तीन दिन बाद उसे सरकारी नौकरी के लिए बुलावा आया। अगर इस युवक ने  गलत साइड से  आयशर वाहन को  ओव्हरटेक करने की गलती ना की होती , तो वह दुर्घटना का शिकार नहीं  होता। 
बाइस वर्षीय युवा , पंकज भट्ट के वाहन की तेज रफ़्तार उसकी जिंदगी की रफ़्तार से भी आगे निकल गई।  ओव्हरब्रिज से गुजर रही स्कुल बस  से आगे निकलने का जूनून सीधे मौत के मुंह में ले गया।  इस घटना में बाईक सवार पंकज भट्ट और उसके साथी की मौत हो गई। काश ,  दोनों युवको ने रफ़्तार पर लगाम लगाई होती ,  हेलमेट पहना होता तो , तो शायद  यह घटना जानलेवा ना होती।
सात वर्ष की मासूम रीनू बारेला , अपने मामा मामी के पास संजय नगर  में रहती थी। जिसे उसके परिजनों ने घरेलु सामान लेने किराना दूकान भेज दिया। रीनू यह भी नहीं जानती थी की , भारी वाहनो की आवाजाही वाली सड़क को कैसे क्रास करना है।   वह सड़क पार की किराना दूकान तक पहुँच ही नहीं सकी।  क्योंकि बीच सड़क पर,  रिवर्स हो रहे  एक डम्पर ने उसे रौंद  दिया।  मेरे अपने शहरवासी यह क्यों नहीं समझते की , परिजनो को अपनी देखरेख में बच्चों को सड़क पार करानी  चाहिए । 
आंगनवाड़ी कार्यकर्ता , शोभा सोनवणे , जिनके पति पहले ही चल बसे थे।   अपने दोनों बच्चों की जिम्मेदारी बखूबी संभाल रही थी , की एक सड़क दुर्घटना में इस महिला की  मौत हो गई।  और उसके दोनों  बच्चे फिर अनाथ हो गए। बच्चों के  लालन-पालन की जिम्मेदारी नाना नानी के  बूढ़े कंधों पर है। आंगनवाडी से घर वापस जाने की जल्दी में एक बाइक पर लिफ्ट लेकर आते समय यह महिला मानसिंग मिल तिराहे पर दुर्घटना की शिकार हो गई।  बाइक सवार की गलती सिर्फ इतनी थी की उसने टर्न लेते समय ,  यातायात संकेत का उपयोग नहीं किया।
 मेरे अपने अंचल की सड़को पर घटित हुई दुर्घटनाओं को  बताने के पीछे मेरा मकसद सिर्फ इतना है की , मेरे अपने शहर का कोई बाशिंदा फिर इसी तरह किसी दुर्घटना का शिकार ना हो। किसी के घर का रोशन चिराग समय से पहले ना बुझे।   
क्योंकि मै खंडवा हूँ , मेरे अंचल में रहने वाला कोई भी बाशिंदा किसी दुर्घटना का शिकार होता है , तो मै भी उनके परिजनों जितना ही दुखी होता हूँ । क्योंकि मै खंडवा हूँ ,  
मै नहीं चाहता की कोई मेरा अपना किसी दुर्घटना का शिकार हो 
मै नहीं चाहता की किसी के घर का चिराग रोशन होने से पहले ही बुझ जाए 
मै  नहीं चाहता की किसी  के परिवार का मुखिया , असमय ही उस परिवार से  विदा हो जाए। और उस परिवार के सपने बिखर जाए। 
मै सिर्फ इतना ही चाहता हूँ की मेरे अपने शहर के नागरिक यातायात नियमो का पालन करते हुए अपना और अपनों का जीवन सुखद बनाये। क्योंकि मै खंडवा हूँ , 

   
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