कभी कर्मवीर, कभी भारतीय आत्मा कहा गया .
पुष्प की अभिलाषा की लिखने वाले की अभिलाषा को किसी ने नही समझा .
कर्मवीर भवन से प्रकाशित कर्मवीर समाचार पत्र आजादी के वीरो के लिए प्रेरणा हुआ करता था . मेरे जाने के बाद वह भवन उजाड़ हो गया. गाहे-बगाहे कोई साहित्यकार तो कभी कोई पत्रकार कर्मवीर भवन में बसी भारतीय की आत्मा को खोजते और चले जाते . कुछ ने मेरी पीडा को समझते हुए सोई हुई सरकार के कान में फूंक भी लगाई . लेकिन वह नही जागी , जागती भी कैसे ? जगाया उसे जाए जो सोया हुआ हो . भला सोने का बहाना करने वाले भी कभी जागते है ?
....... यह सिलसिला इसी तरह चलता रहा .कर्मवीर की खामोशी और गहराती गई . हर मौसम में मुझे पनाह देने वाले छत के कवेलू भी बिखरने लगे . कमजोर होती दीवारों की ईटे भी खिसकने लगी . . कर्मवीर में रातो के वीर भी घुसे जो छोटी - मोटी चोरी करके चले गये . इस घटना ने उन्हें जगा दिया जो कर्मवीर को मात्र सम्पत्ति मानते रहे . और उन्होंने कर्मवीर बेच दिया .........
.........उस दिन इस भारतीय की आत्मा मानो शरीर से विदा हो गई . आत्मा के विदा होने के बाद कर्मवीर भी जमींदोज हो गया . अब वहां विशाल भवन है जिसमे प्राइवेट कम्पनियों के दफ्तर का फर्नीचर बन रहा है .
........आत्मा अमर है .कर्मवीर ना रहा तो क्या हुआ दादा की प्रतिमा तो है जो पद्म विभूषण पंडित माखन लाल चतुर्वेदी की याद दिलाती है .
चाह नही .........पंक्तियाँ लिखी ,वो उस वक्त की जरूरत थी ..अब चाह नही के मायने बदल गये . मेरी प्रतिमा मयखाने के करीब लगा दी गई . मदिरा पीकर मदहोश होने वाले ,मेरी प्रतिमा के आसपास ,होश आने तक पडे रहते है . शायद प्रशासन यही समझता है की मैंने पुष्प की अभिलाषा नही बल्कि मधुशाला लिखी हो ... पुष्प की अभिलाषा की लिखने वाले की अभिलाषा को किसी ने नही समझा .. अनंत माहेश्वरी खंडवा [म.प्र.]
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें